गुलज़ार .....

जब जब पतझड में पेडों से
पीले पीले पत्ते मेरे लॉन में आकर गिरते हैं
रात को छत पर जाके मैं आकाश को तकता रहता हूं
लगता है कमजोर सा पीला चांद भी
शायद पीपल के सूखे पत्ते सा लहराता -
लहराता मेरे लॉन में आकर उतरेगा

----------- * ------------

तकिये पे तेरे सर का वो टिप्पा है
चादर में तेरे जिस्म की वो सोंधी-सी खुशबू
हाथों में महकता है तेरे चेहरे का एहसास
माथे पे तेरे होटों की मोहर लगी है
तू इतनी करीब है कि तुझे देखूं तो कैसे
थोडी-सी अलग हो तो चेहरे को देखूं !!

------------ * -------------

सुबह सुबह इक ख्वाब की दस्तक पर दरवाज़ा खोला, देखा
सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आए हैं
आंखों से मानूस थे सारे

चेहरे सारे सुने सुनाये
पाँव धोये, हाथ धुलाये
आँगन में आसन लगवाए ...
और तन्नूर पे मक्की के कुछ मोटे मोटे रोट पकाए
पोटली में मेहमान मेरे
पिछले सालों की फसलों का गुड लाये थे

आँख खुली तो देखा घर में कोई नहीं था
हाथ लगाकर देखा तो तन्नूर अभी तक बुझा नहीं था
और होठों पे मीठे गुड का जायका अब तक चिपक रहा था

ख्वाब था शायद !
ख्वाब ही होगा ! !
सरहद पर कल रात , सुना है , चली थी गोली
सरहद पर कल रात , सुना है
कुछ ख़्वाबों का खून हुआ है


---------- * -----------

मौत तू एक कविता है ....
मुझसे एक कविता का वादा है , मिलेगी मुझको ...

डूबती नब्जों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिए चाँद उफक तक पहुंचे ...
दिन अभी पानी में हो , रात किनारे के करीब
न अँधेरा हो , न उजाला हो ...
न आधी रात , न दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को साँस आए ...

मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको ....

---------- * -----------
छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे
आँख लगाकर - कान बनाकर
नाक सजाकर -
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला -
तेरा उपला -
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे

हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था -
इक मुन्ना था -
इक दशरथ था -
बरसों बाद - मैं
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में

इक दोस्त का उपला और गया!
---------- * -----------

Comments

Popular posts from this blog

मित्रहो

आपुलकी

लग्न!!